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ऑनलाइन वाली राखी - स्टोरी

ऑनलाइन वाली राखी - स्टोरी


आज सुबह सुबह 4 अंको वाले एक नंबर से फोन आया. सर मै रिलायंस फ्रेश के पास खड़ा हूं किधर आना है. कसम से मन में लालच आहा लपलप के 2 लड्डू फूंटें.

क्योंकि मैंने कोई ऑर्डर किया ही नहीं था. फिर मैं तेजी से सीढियों से उतरा और पार्सल देने आए लड़के के पास फोन कर्ता, तभी उसका फोन टनक गया. मैंने कहा इंतज़ार करिए मैं आ रहा हूँ. उसे ज्यादा जल्दी थी, लेकिन आज उससे भी ज्यादा मुझे जल्दी थी, क्योंकि मुफ़्त के ऑर्डर को कौन छोड़ेंगा मेरे भाई. आप कहेंगे हम... तो हां मेरे भाई, मैं जानता हूं कि आप बहुत ही शरीफ़ और भगवान किस्‍म के इंसान हो.

मैं पार्सल वाले लड़के से दूर से ही हाथ हिलाते हुए इशारे से की हाँ भाई मै ही हूँ.. टाइप के इशारे करता हुआ उसके पास गया, जिससे वह पहचान जाएं और वहा पहुंचते ही पार्सल अपना, वरना वहां जाके कोई लोचा हो जाए और फ्री का ऑर्डर मेरे भाग्य से चला जाए.

खैर लड़के ने कुछ पूछा नहीं कहा, सर यू आर सर्वेश्वर मैंने भी तप से अंग्रेजी बोली और कहा यस यस आई एम सर्वेश्वर. उसने पार्सल दिया और फीडबैक के लिए बोला. मैंने कहा जा भाई तुझे मैंने 5 में से 7 स्टार दिए.

अब उसको पता कि मेरे पास वो ऑप्शन तो होना चाहिए ना. जब ऑर्डर किया होता तब ना फीडबैक कर पाता. खैर मैंने पार्सल लिया और वहां से निकला. एक बार पीछे भी मुड़ के नहीं देखा कि कही बुला लिया तो सब मटियामैल हो जाएगा. आगे वाली गली में पहुंच के पार्सल देखा तो उसमें मेरे नाम की सारी स्पेलिंग थी, बिना सिंगल मिस्टेक.

मैंने कहा रूम पे ले चलता हूं, वही खोलूंगा. रूम पर पहुंचते ही खट से फ्लिपकार्ट का बॉक्स खोला देखा उसके अंदर राखी है. मन में दिमाग की बत्ती जली फिर ध्यान में आया और सोचा शायद बहन ने राखी भेजी हो. फिर मन में जो लालच आहा लपलप के जो दो लड्डू फूंटे थेे, वह एकदम फूट गए.

मैंने रक्षाबंधन देखा मन में एक छुदबूदाहत होनी लगी. एक अलग किस्म की खुशी हुई जो अक्सर नहीं होती, फिर मेरा ध्यान उस डिब्बे पर गया, जिसने लिखने को मजबूर किया,

फ्लिपकार्ट के डिब्बे से लिपटा हुआ रक्षाबंधन मेरी तरफ देख रहा था और मैं उसे. दिमाग में ढ़ेर सारे प्रश्न जमा होने लगे.
पहला तो ये कि, आधुनिकता ने सब कुछ कितना आसान कर दिया है.

बहन ने वहां से ऑर्डर किया और यहां 3 दिन में रक्षाबंधन का पूरा एक डिब्बा मेरे पास. अगर कुछ नहीं आया साथ तो वो उसके हांथो का प्यार. उसमें उसकी भी कोई गलती नहीं मैं उससे दूर जो इतना हूं.

सोचता हूँ कि वक़्त कितनी तेजी से बदल रहा है, कभी ऐसा भी हुआ करता था कि जब वो हाथ के कलाई पर रक्षा बांधने लगती और कहती पहले पैसा दो फिर बांध  दूँगी राखी.. मैं भी ठहरा ढीठ मैं भी कहता पहले राखी बांध वरना नहीं देता पैसे, क्योंकि जेब खाली हुआ करती थी उस वक़्त. फिर पापा से मांग कर 10 रुपये जो उसको देता. हंसी खुशी राखी बांध देती वह। 

आज पैसे पास हैं, तो हम दूर है उससे.
काश ऑनलाइन होता कोई ऐसा ऑप्शन जो तपाक से पहुंचा देता उन बचपन के दिनों में और मैं फिर से जी भरके लड़ता उससे एक बार. काश होता ऑनलाइन कोई ऑप्शन जो छोड़ देता हमें उन दिनों में और फिर कहता जो एक बार कि पहले बांध राखी वरना नहीं देता पैसे. काश ऑनलाइन होता वो ऑप्शन जो मुझे पापा के जेब तक पहुंचाता और मैं एक बार फिर से 5 रुपए के लिए सूता जाता. काश होता, काश होता, वो ऑप्शन जो फिर से मिलवा देता मुझे मेरी माँ से जहां एक बार फिर से कुंभकरन की तरह सो जाता उसकी गोदी में एक बार.

काश होता? जो एक बार... बस एक बार। 



- पत्रकार सर्वेश्वर पाठक के ब्लॉग से !

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